जाति न पूछो साधु की

15वीं शताब्दी में एक कवि हुआ करते थे-कबीर। कबीर दास। यूं तो उन्होंने कई दोहे लिखे लेकिन उनका एक दोहा रह रह कर मेरे मन मे उभरता रहता है-
जाति न पूछो साधु की
पूछ लीजिए ज्ञान
मोल करो तलवार का
पड़ी रहन दो म्यान।
उनका मानना था कि हमें किसी भी व्यक्ति से उसकी जाती नहीं बल्कि उसका ज्ञान पूछना चाहिए, या कहें कि किसी व्यक्ति की असली पहचान उसके कुल, जाति, धर्म, वर्ण आदि से नहीं बल्कि उसके ज्ञान से होती है। इस दोहे के माध्यम से वो चाहते थे कि लोग ज्ञान के महत्व को समझें या कहें कि व्यक्ति के सच्चे महत्व को समझें। लेकिन यह भी एक बड़ा सत्य है कि ज्ञान के महत्व को समझने के लिए भी ज्ञान हीं चाहिए। जिस प्रकार एक भिखारी धन के न होने पर धन नहीं कमा पाता क्योंकि धन से ही धन कमाया जाता है अर्थात थोड़े धन का निवेष करने पर और धन प्राप्त होता है उसी प्रकार कोई अज्ञानी व्यक्ति ज्ञान का असली महत्व नहीं समझ पाता है।
लेकिन क्या यह बात पूरी तरह से इतनी सीधी और सत्य है जितनी दिखाई पड़ती है?
शायद नहीं। कोई भिखारी एक पल में धनी तो नहीं बन सकता लेकिन मेहनत लगन से कुछ धन तो कमा हीं सकता है। वह कुछ मेहनत मजदूरी करके धन कमाए और उसके प्रयोग(निवेश) से और धन कमा सकता है। उसका थोड़ा धन उसके पास थोड़ा और धन ला सकता है। ज्ञान का भी कुछ ऐसा ही हिसाब है। कोई व्यक्ति जन्म से ज्ञानी नहीं होता। जिस प्रकार एक भिखारी को समाज से थोड़ा-थोड़ा धन प्राप्त होता है उसी प्रकार हर व्यक्ति को समाज से थोड़ा-थोड़ा ज्ञान भी प्राप्त होता रहता है। वह भिखारी धन का सदुपयोग करता है या नहीं यह उसपर निर्भर करता है। वह उस धन के साथ अपनी मेहनत और लगन जोड़ दे तो वह और बढ़ जाता है बल्कि यदि वह मेहनत करे तो शायद भीख मांगने की जरूरत हीं न होती और उसके मेहनत से ही कुछ धन मिल जाता। ऐसे ही जब हमें समाज से थोड़ा-थोड़ा किसी भी प्रकार का ज्ञान मिलता है तो हमें उसका सदुपयोग करना चाहिए ताकि ज्ञान में वृद्धि हो। यदि हम ऐसा नहीं करते तो सदा ज्ञान नाम के धन से दूर रहेंगे और भिखारी अर्थात अज्ञानी हीं बने रहेंगे।
यह तो बात थी कि ज्ञान से ज्ञान प्राप्त करें लेकिन कुछ लोग ज्ञान का प्रकाश होने पर भी अज्ञानता के अंधकार में ही जीवन जीते हैं या कहें कि दूसरों का जीवन अंधकारमय कर देते हैं। जैसे कभी-कभी एक बहुत धनी व्यक्ति धन होते हुए भी उसका सदुपयोग नहीं करता उसी प्रकार कुछ ज्ञानी लोग भी कभी कभी ज्ञान का गलत प्रयोग करके दूसरों को और समाज को हानि पहुंचते हैं। एक साहूकार या जमींदार अथवा धनी व्यक्ति लालच में किसी गरीब को धन देता है और उसपर भारी ब्याज लेता है जिससे कर्जदार का कभी-कभी जीना भी मुश्किल हो जाता है। ऐसे ही कुछ तथाकथित ज्ञानी लोग भी समाज में होते हैं जो अपने ज्ञान का दुरुपयोग करते हैं जैसे कि किसी वकील द्वारा एक अपराधी को बचाना, एक वैद्य द्वारा मरीज़ को सही दवा न देना ताकि वह बार-बार इलाज करवाने आए, एक शिक्षक द्वारा विद्यार्थी को सही शिक्षा न देना और न जाने कितने ही उदाहरण आपको मिल जाएंगे समाज में यदि आप खोजें तो। ऐसे धनी धन होते हुए भी एक भिखारी के समान है और ऐसे ज्ञानी व्यक्ति भी ज्ञान होते हुए अज्ञानी हैं।
ये तो रही ज्ञान(धन) की बातें अब आते हैं जति पर। आख़िर ये जाति है क्या? अलग-अलग लोग इसकी अलग-अलग परिभाषा देते हैं। कहने को तो जाति, धर्म, वर्ण सब अलग-अलग हैं लेकिन अगर कोई मेरी नज़र से देखे तो ये एक ही रावण के अलग-अलग सिर हैं जिनका स्थान बस एक दूसरे से थोड़ा अलग हो सकता है लेकिन कार्य सबका एक ही है- लोगों को बांटना।
हिन्दू धर्म में कई लोगों का मानना है कि ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण जन्मा था, भुजाओ से क्षत्रिय, उरु(नाभि) से वैश्य, और पाद(पैरों) से क्षुद्र का जन्म हुआ था। हालांकि इसका कोई वैज्ञनिक आधार नहीं है लेकिन हम थोड़ी देर के लिए इसे सच मान लेते हैं। अब जिन लोगों को धर्म के बारे में थोड़ा सा भी पता होता है वो विष्णु के मत्स्य अवतार के विषय में अवश्य ही जनते होंगे। मत्स्य अवतार में श्री हरि विष्णु ने राजा सत्यव्रत मनु को बताया-"आज से सातवें दिन पृथिवि पर प्रलय आएगा, सारी सृष्टि जलमग्न हो जाएगी। तुम सभी पेड़ पौधों व औषधि, सभी जीवों के एक एक जोड़े व सप्तऋषियों को अपने साथ ले लेना और तुम्हारे पास एक नौका आएगी तुम इन सभी के साथ उस नौका में बैठ जाना। मैं इसी मत्स्य रूप में तुम्हारे पास आऊंगा और जब लहरों के कारण नौका डगमगाए तब वासुकि नाग की सहायता से नौका को अपने सींग में बांधकर मैं उस समय तक जल में तुम्हारे साथ विचरण करता रहूंगा जब तक ब्रह्मा की रात रहेगी। जब ब्रह्मा की रात खत्म होगी तब फिर से सृष्टि बसेगी और एक मन्वन्तर तक मैं उसका संचालन करूंगा।"
अब सोचने की बात ये है कि अगर ये चारों वर्ण वैसे ही बने थे तो वो तो सब प्रलय में खत्म हो गए और जो लोग उसके बाद हुए वो सब तो ऋषियों की संतानें है क्योंकि राजा सत्यव्रत मनु ने सप्तऋषियों को अपने साथ ले लिया था।(हालांकि इस पर मुझे निजी रूप से सन्देह है कि क्या कोई महिला भी या नहीं उन सप्तऋषियों में लेकिन फिलहाल ग्रंथो की बात ही मान लेते हैं) तो इस प्रकार तो हर कोई ऋषियों की संतान हुआ नाकि किसी ब्राह्मण,क्षत्रिय, वैश्य या क्षुद्र का। ये जातियां फिर कहाँ से आई? इसका तो अब यही निष्कर्ष निकलता है कि ये जातियां ईश्वर की नहीं बल्कि मनुष्यों की बनाई हुई हैं।
सम्भव है कि कुछ लोग इस बात से ही इंकार कर देंगे कि ऐसी कोई घटना कभी हुई थी तो उनके लिए मेरे पास एक सवाल और भी है। लो मान लिया थोड़ी देर के लिए कि ये जातियां ईश्वर द्वारा बनाई गई थीं। अब एक प्रश्न उठता है कि यदि ब्रह्मा ने क्षत्रिय को युद्ध के लिए और रक्षा करने के लिए बनाया था तो कोई भी क्षत्रिय कमजोर नहीं होना चाहिए फिर कैसे कोई क्षत्रिय कमजोर हो सकता है? मैंने कई ऐसे क्षत्रिय देखे हैं जिनकी सीने की हड्डियां तक नजर आती हैं और यदि कोई भरकर एक मुक्का उन्हें मार दे तो शायद अपना प्राण ही त्याग दें। कई ब्राह्मण ऐसे देखे जिन्हें कोई भी मन्त्र नहीं आता ठीक से और न ही वो कोई पढ़ाई ठीक से करते हैं। कई ऐसे वैश्य देखे हैं जो व्यापर नहीं करते बल्कि सेना में भर्ती हो जाते हैं क्योंकि उन्हें वयापार नहीं आता युद्ध आता है। कई क्षुद्र ऐसे भी है जो ज्ञानी थे और कई ऐसे जो सैनिक बने। ये जातियां अगर ईश्वर की देन होती तो पण्डित(ब्राह्मण) केवल पढाई का काम किया करते, क्षत्रिय कभी दुर्बल न होता, वैश्य सदा व्यापार करते और कोई क्षुद्र कभी किसी ब्राह्मण से ज्यादा ज्ञानी या किसी क्षत्रिय से अधिक बलशाली न होता। लेकिन क्योंकि हम सब ने ये अपवाद देखे है इसलिए सबित तो यही होता है कि ईश्वर ऐसा नहीं चाहते इसीलिए तो ईश्वर ने सभी वर्णों में हर प्रकार के लोग पैदा किए। कुल मिलाकर कहने का मतलब है कि ये जातियां ईश्वर द्वारा नहीं बल्कि मनुष्य द्वारा बनाई गई हैं।
अब एक प्रश्न ये भी उठता है कि यदि ये जातियां स्वयं मनुष्यों द्वारा बनाई गई तो कैसे? इसका जवाब पुरानी मान्यताओं में ही छुपा है। ब्राह्मण बना ज्ञान के लिए, क्षत्रिय बना और रक्षा और राज करने के लिए, वैश्य बना व्यापार के लिए और क्षुद्र बना इन सभी की सेवा करने के लिए। यही पुरानी मान्यता है। इसमें थोड़ा बदलाव करना पड़ेगा। इन्हीं बातों को अब कुछ इस प्रकार कहते है----
ज्ञानी व्यक्ति को ब्राह्मण कहते हैं, सैनिक या युद्ध करने वाले या रक्षा करने वालों को क्षत्रिय कहते हैं, व्यापारियों और दुकानदारों को वैश्य और नौकरों को क्षुद्र कहते है। अब ये काफी कुछ समझ में आने वाला हो गया है। अब हम इन सबके कामों की तुलना करते हैं आज के लोगों से तो पाएंगे कि जाने अनजाने हम खुद इन जातियों का निर्माण कर देते हैं। जैसे यदि तुलना करें तो आज जो विद्यालयों, महविद्यलयों, वुश्वविद्यालयों में जो शिक्षक हैं, चिकित्सक(डॉक्टर), अभियंता(इंजीनियर), वैज्ञानिक है ये सब उस समय के ब्राह्मण और ऋषि-मुनि जैसे हैं। आज जो हमारी रक्षा करने वाले सैनिक हैं, पुलिस ये सब उस समय के क्षत्रियों की तरह हैं। बड़े-बड़े उद्योगपति, वयापारी, दुकानदार, साहूकार, बैंक(निर्जीव होते हुए भी) आदि सब वैश्य हैं। आज जो घरों में नौकर खाना बनाते हैं, साफ-सफाई करते हैं, माली, धोबी, कचरा उठाने वाला(नगर निगम कर्मचारी) आदि सब उस समय के क्षुद्रों जैसा हीं काम करते हैं। अब सोचिए क्या आप एक शिक्षक को धोबी या उद्योगपति या सैनिक कह सकते हैं? ज़ाहिर है नहीं। क्योंकि वो तो शिक्षक है। तो देखा जाए तो जातियां कर्म के आधार पर होती हैं और उसे कोई रोक नहीं सकता केवल नाम बदल जाते हैं। उस समय ऋषि, मुनि, पण्डित, वैद्य होते थे और अब वैज्ञानिक(scientist), शिक्षक(teacher), चिकित्सक(doctor) होते हैं। उस समय क्षत्रिय कहते थे आज सैनिक(soldier), सेना(army), रक्षक(guard), सुरक्षा बल(police force) कहलाते हैं। उस समय वैश्य कहते थे जिन्हें आज उन्हें उद्योगपति(industrialist), व्यापारी(businessmen), दुकानदार(shopkeeper) कहते हैं। उस समय जिन्हें क्षुद्र कहते थे आज वो नौकर(servant), माली(gardener), बढ़ई(carpenter) आदि कहते हैं। वैसे इस प्रकार जातियां बुरी या गलत तो नही लग रही होंगी, लेकिन हम तो किसी बुराई की बात कर रहे थे ना? ज़ाहिर है जिसके बारे में बात कर रहे थे वो ये नहीं है, फिर मैंने इसके बारे में इतना बताकर समय क्यों बर्बाद किया? क्योंकि उस बुराई की शुरुआत इसी तरह हुई थी। आज जो जाति व्यवस्था भारतीय समाज में देखने को मिलती है वह इतनी बुरी है जिससे अक्सर दो गुटों के बीच संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। जो वर्ग क्षुद्र कहलाता है यदि उसका काम देखें तो सबसे निचले दर्जे का होता है क्योंकि वो सेविकाई है, दूसरों के आदेश मानने पड़ते हैं। किसी को भी अच्छा नहीं लगता जब कोई उसे अपमानित करे लेकिन यह बात तो हम सब जानते हैं कि नौकर अक्सर अपने मालिक द्वार अपमानित किया जाता है। पहले जातियां इतनी खराब नहीं थीं बल्कि बाद में ये खराबियां या कहें बुराइयां आ गईं। समाज के एक हिस्से को नौकर बना दिया गया और कहा गया कि तुम सिर्फ बाकी तीन वर्णों की सेवा करने के लिए पैदा हुए हो। तुम्हारी खुद की कोई इक्षा नहीं होगी, और तुम्हें उनकी दया पर जीना होगा। स्थिति ऐसी हो गई कि अब लोग नौकर(क्षुद्र) बनते नही बल्कि नौकर(क्षुद्र) पैदा होने लगे थे। ऐसे हीं सभी जातियाँ कर्म के आधार पर नहीं, जन्म के आधार पर बन गईं। क्षुद्र के घर क्षुद्र, क्षत्रिय के घर क्षत्रिय, ब्राह्मण के घर ब्राह्मण पैदा होने लगे। एक समय वह भी आया जब क्षुद्रों को अछूत घोषित कर दिया गया और उन्हें बाकी तीन वर्णो को छूने की या उनके घरों में प्रवेश की बिल्कुल भी अनुमती नहीं रही। यह स्थिति काफी दयनीय थी। क्षुद्र गाँव से बाहर कर दिए गए ताकि तथाकथित उच्च वर्णो को किसी प्रकार की असुविधा न हो। इस एक वर्ण के लोगों को इतना गन्दा या अछूत माना जाने लगा कि यदि किसी क्षुद्र के पदचिन्हों पर भी किसी ब्राह्मण के पैर पड़ जाएं तो वह अशुद्ध हो जाता इसलिए सभी क्षुद्रों को अपनी कमर पर झाड़ू बांधकर चलना पड़ता था जिससे कि उसके पैरों के निशान मिट जाएं।

पता नहीं ये झाड़ू ब्राह्मणों को अशुद्ध होने से बचाने के लिए था या इसलिए कि क्षुद्र कभी अपनें पैरों के निशान न देख पाएं। शायद वो अपने पैरों के निशान किसी ब्राह्मण या क्षत्रिय के पैरों के निशान के साथ देख लेते तो विचार करने लगते कि दोनों पैरों में क्या अंतर है भला? और फिर शायद वो अपनी स्थिति पर भी विचार करते और इस सामाजिक दासता के बंधन से मुक्त होना भी चाहते। शायद इसी स्थिति को रोकने के लिए उस झाड़ू का इस्तेमाल किया गया। लेकिन ये विचार केवल पैरों के निशान का मोहताज तो नहीं हो सकता। ये विचार क्षुद्रों में ब्राह्मण के हांथ और अपने हांथ देखकर भी तो आ सकता था और शायद ऐसा हुआ भी और इसीलिए इतिहास में कई बार ऐसा हुआ कि जब किसी क्षुद्र ने उच्च वर्णों का विरोध किया लेकिन स्थिति कभी सुधरी नहीं। क्षुद्रों को हर प्रकार से गन्दा और अछूत माना जाने लगा। उनको समाज की सामान्य धारा से पूरी तरह अलग कर दिया गया। साधारण कुँए और तालाबों से पानी पीने की उन्हें अनुमति नहीं थी क्योंकि इससे वो तालाब और कुंआ अशुध्द हो जाते। किसी कुँए के चबूतरे पर कोई क्षुद्र बैठ जाए तो उसकी पिटाई कर दी जाती और कौन जाने शायद हत्या भी कर दी जाती हो। फिर उसके बाद गाय के गोबर व मूत्र द्वारा उसे शुद्ध किया जाता था। यह बड़ी तर्कहीन बात है कि किसी व्यक्ति के बैठ जाने या पानी पीने से कुंआ अशुद्ध हो जाता है और गाय के गोबर व मूत्र से शुद्ध। हालांकि गाय के गोबर के इस्तेमाल में थोड़ा तर्क है लेकिन इससे बड़ा कुतर्क क्या होगा कि कुंआ अशुद्ध हो गया। इस कुतर्क के सामने गोबर का तर्क किसी काम का नहीं। जब कोई धोबी(क्षुद्र) किसी को छू ले तो वह अशुद्ध हो जाता लेकिन सोचने की बात है कि जब वह हमारे कपड़े धोता है तब क्या कपड़े अशुद्ध नहीं होते और उन्हीं कपड़ों को पहनकर हम अशुद्ध नहीं होते? जब क्षुद्र हमारे खेतों में काम करते तो क्या खेत और फसल अशुद्ध नहीं होते और उसी अन्न को खाकर क्या हम शुद्ध रह पाते हैं? जब गाय की सफाई, नहलाना कोई क्षुद्र करता तो क्या गाय नहीं होती थी अशुद्ध और उसी गाय के दूध को हम पीते थे। मन्दिर में जाने से क्षुद्रों को रोका जाता था क्योंकि इससे मन्दिर परिसर अशुद्ध हो जाता, तो इन क्षुद्रों को बनाने वाला ईश्वर इन्हें बनाते समय अशुद्ध नहीं हुआ? जब क्षुद्र के पैरों के निशान पर हमारे पैर पड़ जाते तो हम अशुद्ध हो जाते लेकिन कया वह भूमि या मिट्टी अशुद्ध नहीं हुई जिसपर उसके पैर पड़े? झाड़ू लग जाने से उसके पैर के निशान मिट गए मिट्टी पर से और क्या इससे वह शुद्ध हो गई? अगर ऐसा है तो वही झाड़ू हमें भी तो शुद्ध कर सकती थी बेकार में गंगाजल क्यों लाया जाए?
वास्तव में शुद्धि न तो झाड़ू से होती है और ना हीं गंगाजल से, होती है तो मन से। मन शुद्ध नहीं तो आदमी कैसे शुद्ध हो सकता है और मन शुद्ध है तो किसी के छूने से हम अशुद्ध नहीं हो जाएंगे। अगर ध्यान दें तो देखेंगे कि उच्च वर्ण वाले तभी अशुद्ध होते थे जब उन्हें कोई तकलीफ न हो, जहां उन्हें तकलीफ होने लगे वहां वो अशुद्ध नहीं होते थे जैसे धोबी के द्वारा धुले कपड़े पहनने में वो अशुद्ध नहीं होते क्योंकि उन्हें फिर खुद कपड़े धोने पड़ते। इसी तरह खेतों में जब क्षुद्र काम करते तो खेत और फसल अशुद्ध नहीं होते क्योंकि फिर खाएंगे क्या और खेत का सारा काम खुद हीं करना पड़ता।
ये बात रही समस्या की लेकिन सोचने की एक और बात है कि ये समस्या इस हद तक कैसे बढ़ गई? ऐसा तो हो नहीं सकता कि किसी ने कहा हम ऊंची जात, तुम नीची जात और तुम हमारी गुलामी करो। यदि ऐसा कहा भी होगा तो किसी ने खुद को नीची जात(क्षुद्र) कैसे स्वीकार कर लिया भला? वास्तव में ये समस्या अज्ञानता और स्वार्थ के कारण आई। जाने अनजाने इसमें सबका हाँथ रहा, फिर चाहे वो ब्राह्मण हो, क्षत्रिय हो, वैश्य या क्षुद्र। सोचिए आप एक उद्योगपति हैं। आप अपने बच्चे को भी अपना काम सिखाएंगे, और ऐसे में बहुत सम्भावनाएं हैं कि आपका बच्चा भी आपके जैसा हीं बने। एक पंडित अपने बच्चे को मन्त्र और वेदों की शिक्षा ज्यादा नहीं तो थोड़ी तो देता हीं है फिर ऐसे में बहुत सम्भावना है कि उसका बच्चा भी पण्डित बने। एक वैद्य के घर में भी सभी लोगों को दवाइयों का थोड़ा ज्ञान तो जरूर होता है और वे सब भी छोटे-छोटे वैद्य के समान किसी को सही दवाई दे सकते हैं। समस्या की शुरुआत इसी तरह से हुई थी। एक बढ़ई जब लकड़ी का कोई काम करता तो साथ अपने बच्चे से भी करवाता जिससे बच्चा भी उसी काम को धीरे-धीरे सीख जाता और वो भी एक बढ़ई बन जाता। धोबी का बच्चा भी धोबी की सहायता करता इसी तरह हवन में पण्डित अपने बच्चे को साथ लेकर जाता और जिस तरह वह पण्डित हवन करता उसे उसका बच्चा भी धीरे-धीरे सीख जाता। एक सैनिक का बच्चा भी अपने पिता का हीं काम सीखता और इस तरह धोबी के घर में धोबी, सैनिक के घर में सैनिक और पण्डित के घर में पण्डित बनने लगे। आज भी तो कुछ ऐसा हीं देखने को मिलता है अक्सर जैसे नेता का बेटा नेता बन जाता है, डॉक्टर अपने बच्चे को डॉक्टर बनाना चाहता है कोई धोबी या बढ़ई या कचरा ढोने वाला नही। सारांश में कहें तो जो जैसा है बच्चे को भी वही शिक्षा दे देता है। लेकिन इसमें कोई बुराई नहीं थी क्योंकि बच्चा जो काम बचपन से हीं सीखते करते आया हो उस काम में वो निपुण हो जाता है और इसीलिए वह भी उसी काम को अपनी जीविका का साधन बना लेता है। कभी-कभी इससे अलग भी कुछ होता था जैसे कोई पण्डित का बेटा जिसे मन्त्रों को सीखने में कोई रुचि नहीं होती, जोकि युद्ध सीखना चाहता तो वह एक क्षत्रिय बन जाता और इस तरह एक ब्राह्मण का बेटा क्षत्रिय बन जाता जैसे आज किसी शिक्षक या वैज्ञनिक का बेटा सेना में भर्ती हो जाए। इस तरह जो एक जाति व्यवस्था थी वह बुरी नहीं थी बल्कि आवश्यक थी या कहें स्वाभाविक थी। ये जातियां जन्म के आधार पर नहीं बल्कि कर्म के आधार पर होती थी। ऐसे में लोगों को उनकी गलती की सजा भी उनके वर्णानुसार ही होती थी और होनी भी चाहिए। इसका एक बड़ा हीं अच्छा उदाहरण महाभारत में देखने को मिल सकता है। जब राजसभा में विचार चल रहा होता है कि युधिष्ठिर और दुर्योधन में से किसे युवराज बनाया जाए तो उसी समय चार लोग बन्दी बनाकर राजसभा में प्रस्तुत किए जाते हैं और फिर विचार किया जाता है कि दोनों राजकुमारों से ही दण्ड दिलवाया जाए ताकि दोनों की योग्यता को परखा जा सके। पहले दुर्योधन को मौका मिलता है और वह उन चारों को मृत्यु दण्ड निर्धारित करता है। फिर युधिष्ठिर को मौका दिया जाता है और युधिष्ठिर उनसे पूछता है कि वे सब किस वर्ण के हैं ये बताएं। जब युधिष्ठर से इसका कारण पूछा जाता है तो वह कहता है कि क्षुद्र तो अज्ञानी है उसे अच्छे बुरे की ज्यादा समझ नहीं है इसलिए उसे 4 वर्ष का कारावास(जेल), वैश्य इतना भी अज्ञानी नही है इसलिए उसे 8 वर्ष का कारावास और क्षत्रिय तो एक जिम्मेदार व्यक्ति है, जिसे रक्षा का कार्य सौंपा गया है वही हत्या कर रहा है इसलिए इसे 16 वर्ष का कारावास और ब्राह्मण जोकि इन चारों में सबसे ज्ञानी है और हर बात की समझ रखता है किन्तु ब्राह्मण को मृत्यु नहीं दिया जा सकता इसलिए इनका दण्ड राजगुरु निर्धारित करें। और फिर युधिष्ठिर को युवराज बनाया जाता है। उन चारों ने कार्य तो एक ही किया था(हत्या) लेकिन उनके ज्ञान, अज्ञानता और जिम्मेदारियों के अनुसार उनका दोष कम या अधिक बन गया था और सबको अलग दण्ड मिला। जब कोई व्यक्ति कोई गुनाह करे तो वह दोषी है लेकिन यदि वह किसी बड़े जिम्मेदार पद पर हो तो उसका गुनाह और भी बड़ा हो जाता है। यदि इस कहानी को ध्यान से समझे तो देखेंगे कि युधिष्ठिर ने जो दण्ड निर्धारित किए वो समाज में उनके कार्यों और जिम्मेदारियों के अनुसार निर्धारित किए गए थे। सत्यार्थ प्रकाश नामक ग्रंथ में भी महर्षि दयानंद सरस्वती का यही कहना है कि ये वर्ण व्यवस्था जन्म के नहीं अपितु कर्म के आधार पर होनी चाहिए और पहले भी ऐसी ही थी जिसे मानव स्वार्थ ने आज खराब बना दिया है। और आगे वे कहते हैं कि कर्म के आधार पर वर्ण निर्धारण से निम्न वर्ण के लोग प्रेरित होंगे अच्छे कार्य करके उच्च वर्ण में शामिल होने के लिए और उच्च वर्ण के लोग पाप करने से भी डरेंगे ताकि उन्हें निम्न वर्ण में न भेज दिया जाए। जाहिर है उनके कहने का मतलब यही है कि जैसे एक बढ़ई, धोबी या कचरे वाला या और कोई छोटा काम करने वाला अपने बच्चे को डॉक्टर, इंजीनियर या ऐसा हीं कोई बड़ा व्यक्ति बनाना चाहता है लेकिन कोई डॉक्टर या इंजीनियर या नेता अपने बच्चे को कभी भी कचरा ढोने वाले के रूप में नहीं देख सकते। ऐसी जाति व्यवस्था को बनाने की जरूरत नहीं होती ये तो हर देश में हर समय में मौजूद रहती है बस नाम बदल जाते हैं क्योंकि लोगों की भाषाएं बदल जाती हैं। इसे कोई खत्म नही कर सकता क्योंकि इसे खत्म करने का मतलब है सैनिक को सैनिक न कहना, डॉक्टर को डॉक्टर न कहना, शिक्षक को शिक्षक न कहना जोकि बिल्कुल तर्कहीन बात होगी।
इस तरह जाति व्यवस्था जो थी वह इतनी भयानक नहीं थी, इसे भयानक रूप दिया लोगों के स्वार्थ और ईर्ष्या ने। जब समाज के उच्च वर्ग में स्वार्थ और ईर्ष्या का भाव अधिक बढ़ जाता है तो ऊंच-नीच की खाई और गहरी हो जाती है। समाज में ज्ञानी(ब्राह्मण), सैनिक(क्षत्रिय), व्यापारी(वैश्य) ऊंचे हो गए और बाकी लोग नीचे यानी क्षुद्र हो गए। यह समस्या समय के साथ-साथ इतनी बढ़ती गई कि जहाँ क्षत्रिय के घर क्षत्रिय बनते थे वहां क्षत्रिय पैदा होने लगे। इसका परिणाम बहुत भयंकर निकला जिसमें कि लोग व्यक्तिगत दासता से निकल कर सामाजिक दासता में फंस गए। समाज का एक हिस्सा दास और एक हिस्सा मालिक बन गया। और मालिक अपने दास को अपने बराबर कभी नहीं बनने देता ये हम सब जानते हैं।
इस समस्या से मुक्ति पाने के लिए जरूरी है कि हम सब मिलकर प्रयास करें। सबसे पहले अपने अंदर से हीन भावना निकालनी होगी जैसा मालिक के मन में अपने नौकर के लिए होती है क्योंकि वास्तव में कोई किसी का मालिक नहीं, कोई किसी का नौकर नहीं। सबको समानता और सम्मान का अधिकार है। जिस इश्वर ने क्षत्रिय बनाए उसी ने क्षुद्र भी बनाए फिर कोई कैसे कह सकता है कौन क्षत्रिय और कौन क्षुद्र?
उच्च वर्ग के लोगों को चाहिए कि वो खुद देखें कि वो खुद कितने नीच हैं। खुद समाज में गंदगी फैलाते हैं और उनकी गन्दगी साफ करने वाले को नीचा कहते हैं। वास्तव में कौन नीचा है गन्दगी फैलाने वाला या गन्दगी साफ करने वाला? कौन वास्तव में नीचा है जिसने अत्याचार किया या जिसपर अत्याचार हुआ? यदि अपने अंदर जरा भी स्वाभिमान हो तो सोचें उच्च वर्ग के लोग कि वो किसी की मेहनत द्वारा उगाया अनाज खाते हैं या दूसरों को अनाज उगाकर खाने को देते हैं? ये तथाकथित उच्च वर्ग वाले हीं असली नीच हैं और नीचे वर्ग वाले हीं वास्तव में उत्तम हैं। मनुष्य में स्वार्थ तो खत्म नहीं हो सकता और ब्राह्मण और क्षत्रियों के लिए भी बड़ा कठिन होता है क्षुद्रों को बराबर समझना क्योंकि उनका घमण्ड आड़े आता है। लेकिन यदि यह समस्या जल्दी नहीं सुलझाई गई तो समाज का केवल अनिष्ट हीं होगा। हालांकि आज ये समस्या पहले जैसी नहीं रही है, बहुत कम हो गई है लेकिन फिर भी ये एक बड़ी समस्या बनी हुई है। ब्राह्मणों और क्षत्रियों को चाहिए कि वो क्षुद्रों को समान अधिकार दें और और अपने बराबर समझें ताकि जो बची-कुची समस्या है थोड़ी सी वह भी समाप्त हो सके। यदि ये ऐसा नहीं करते तो क्षुद्रों को हीं करना चाहिए कुछ। जब किसी क्षुद्र को मंदिर में प्रवेश से रोका जाए तो क्षुद्रों को किसी का मोहताज बनने के बजाय खुद मिलकर अलग मन्दिर बना लेना चाहिए और यदि ऐसा नहीं करना चाहते तो मन्दिर हीं न जाएं। वैसे भी ऐसे ईश्वर की पूजा करने से क्या लाभ जिसने इतने निर्दयी लोग बनाए। ईश्वर चाहता तो इनकी सोच बदल सकता था तो फिर क्यों ऐसे ईश्वर की पूजा की जाए। जब ईश्वर हमें समानता का अधिकार नहीं दिलवा सकता तो अच्छा यही है कि उसकी पूजा हीं न करें। जब समाज समानता का अधिकार नहीं दे रहा तो ऐसे समाज का त्याग करना हीं पड़ेगा। अब सवाल ये है कि त्याग करके जाए कहाँ? हिन्दुओ की जाति प्रथा से पीड़ित यह कर सकते हैं कि वे हिन्दू धर्म का त्याग कर सिक्ख धर्म को अपना लें। वैसे सिक्ख धर्म तो धर्म निरपेक्ष धर्म है, वहाँ ऐसी जातिव्यवस्था भी नहीं है। आजतक मैंने किसी भी सिक्ख के बारे में नहीं सुना कि वह जातिवाद से पीड़ित हो। यदि सिक्ख धर्म को ध्यान से देखें तो हम पाएंगे कि जब किसी गुरु की जयंती होती है तो ये समाज का पेट भरने चल देते हैं। बिना किसी की जाति-धर्म पूछे उसका पेट भरते हैं। गुरुद्वारे में भी कोई भी जा सकता है फिर वो चाहे किसी भी जाति या धर्म का क्यों न हो। साधारण दिनों में भी गुरुद्वारों द्वारा लोगों को भोजन कराया जाता है वो भी निशुल्क! बिना उस व्यक्ति की जाति या धर्म जाने! दिल्ली का बंग्लासहिब गुरुद्वारा और अमृतसर का स्वर्ण मंदिर शायद ही कोई होगा जो नहीं जानता होगा।

मैं कभी अमृतसर नहीं गया लेकिन अक्सर सुना है कि अमृतसर में कोई भी भूखा नहीं सोता जिसका कारण अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में चलने वाला लंगर(भोज) है। ऐसे हीं अनगिनत गुरुद्वारे पूरे भारत में न जाने कितने हीं भरे हुए हैं जो लोगों का पेट भरने में लगे हुए हैं बिना किसी की जाति या धर्म पूछे। ऐसे धर्म को बढ़ावा मिलना हीं चाहिए। किसी समय में महान सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म को फैलाया था जोकि दया का धर्म माना जाता है। आज जैसी परिस्थितियां हैं, यदि आज महान सम्राट अशोक जीवित होते तो ये सब देखकर अवश्य हीं सिक्ख धर्म को भी आज फैलाने का निश्चय कर लेते जोकि एक परोपकारी धर्म है। हालांकि दया और परोपकार हर धर्म का मूल होता है लेकिन हर धर्म की कुछ विशेषता होती है। बौद्ध धर्म जहां दया का धर्म है वहीं सिक्ख धर्म परोपकार का धर्म है।
यदि क्षुद्रों के समान अधिकार का हिन्दू धर्म में हनन होता है तो उन्हें सिक्ख बन जाना चाहिए इससे क्षुद्रों की जाति वाली समस्या तो दूर होगी हीं साथ हीं एक अच्छे धर्म की ख्याति भी होगी। वैसे मैं तो यही कामना करूँगा कि क्षुद्रों को इसकी जरूरत न पड़े। उन्हें हिन्दु धर्म में हीं वो समानता और सम्मान मिल जाए। यदि कोई सिक्ख बने भी तो दुखी होकर नहीं बल्कि सिक्ख धर्म की महानता देखकर उनके ज्ञान और आदर्श को फैलाने के लिए, बढ़ाने के लिए बने। ये जातिवाद की समस्या कम तो हुई लेकिन खत्म नहीं हुई, दुआ करते हैं कि यह समस्या जो थोड़ी बची है जल्द हीं समाप्त हो जाए वरना इससे राष्ट्र का अहित हीं होगा। कबीरदास जी के दोहे को केवल पुस्तकों तक नहीं रखेगा बल्कि जीवन में उतारें-
जाती न पूछो साधु की
पूछ लीजिए ज्ञान
मोल करो तलवार का
पड़ी रहन दो म्यान।

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